#jharkhand:झारखण्ड के प्रभारी डीजीपी एमवी राव की नियुक्ति को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी है,न्यायालय में एक याचिका दाखिल कर उनकी नियुक्ति पर सवाल उठाए हैं..

राँची।झारखण्ड में सुप्रीम कोर्ट के आदेश का सही से पालन नही हो रहा है। इसका ताजा उदाहरण राज्य में डीजीपी के पद को लेकर है।लगभग 130 बीत चुके है,इसके बावजूद डीजीपी जैसे महत्वपूर्ण पद प्रभार में चल रहा हैं।ऐसा मामला किसी राज्य में अभी तक देखने को नही मिला होगा, मगर, झारखण्ड में यह संभव है। इतने लंबे समय होने के बाद भी डीजीपी के पद पर किसी को पुर्णकालिन नही बनाया गया है।बिना कार्यकाल पूरा किए जुलाई 2018 में अवमानना याचिका की सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कह दिया है कि डीजीपी नियुक्त करने के मामले में अपनी मनमर्जी चलाने के बजाय राज्य सरकार यह पद खाली होने से कम से कम तीन महीने पहले संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) को सूचना दे।कोर्ट द्वारा तय मानकों के हिसाब से यूपीएससी इस पद के योग्य ऑफिसरों की एक सूची राज्य सरकार को देगी और सरकार उस लिस्ट में से ही किसी एक को इस पद पर नियुक्त करेगी। बीते 16 मार्च को झारखण्ड के डीजीपी केएन चौबे का तबादला कर एमवी राव को प्रभारी डीजीपी बनाया गया।

इससे पूर्व 8 जून 2019 को झारखण्ड डीजीपी के पद पर योगदान देने वाले केएन चौबे का विशेष कार्य पदाधिकारी, पुलिस आधुनिकीकरण कैंप दिल्ली तबादला किया गया। केएन चौबे अगस्त 2021 में सेवानिवृत होगे। वही, होमगार्ड महानिदेशक सह महासमादेष्टा गृह रक्षावाहिनी व अग्निशमन सेवा में तैनात 87 बैच के आईपीएस एम वी राव को अपने ही वेतनमान में डीजीपी का प्रभार दिया गया। एमवी राव सितंबर 2021 में रिटायर होंगे।

सवाल यह है कि झारखण्ड में आखिर पुलिस सुधार की दिशा में कदम क्यों नहीं उठाया जा रहा है? जबकि सुप्रीम कोर्ट ने इस दिशा में स्पष्ट आदेश भी दे रखा है। महज नौ महीने के कार्यकाल में डीजीपी केएन चौबे के हटाए जाने के बाद एक बार फिर झारखंड में पुलिस सुधार की चर्चा ने जोर पकड़ लिया है। कहा यह भी जाने लगा है कि झारखण्ड में पुलिस अपराध नियंत्रण की इकाई से ज्यादा सत्ता का लक्ष्य पूरा करने वाले यंत्र बन गई है। जिसका इस्तेमाल करने में कोई भी राजनीतिक दल पीछे नहीं है। यही कारण हैं कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अमल नहीं हुआ।

एमवी राव की नियुक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट में चुनौती

झारखण्ड के प्रभारी डीजीपी एमवी राव की नियुक्ति को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी है। प्रह्लाद नारायण सिंह ने उच्चतम न्यायालय में एक याचिका दाखिल कर उनकी नियुक्ति पर सवाल उठाए हैं। याचिका में कहा गया है कि राज्य के स्थायी डीजीपी कमल नयन चौबे को हटाना सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का उल्लंघन है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार दो साल के लिए डीजीपी की नियुक्ति होती है और किसी राज्य में प्रभारी डीजीपी की नियुक्ति नहीं की जा सकती है।

नया पुलिस अधिनियम पारित होने तक सुप्रीम कोर्ट का दिशा निर्देश

पुलिस व्यवस्था में सुधार के लिए नये पुलिस अधिनियम का प्रारुप वर्ष 2006 में केद्र सरकार को सौपा गया। जिसमें 221 धारा है। लेकिन इसे पारित नही किया गया है। प्रस्तावित सुधारों के प्रति सरकार की उदासीनता को दृष्टिगत रखते हुए व प्रकाश सिंह बनाम भारत संघ रिट याचिका पुलिस सुधारों की प्रतीक्षा में लंबित रहने के वजह से सुप्रीम कोर्ट ने संवैधानित दायित्व का निर्वहन करते हए दिशा निर्देश जारी किए जिसका केद्र और राज्य को पालन किया जाना अनिवार्य है। जबतक नया पुलिस अधिनियम पारित होकर प्रभावी नही हो जाता।

2006 के निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने सात बाध्यकारी जारी किए थे निर्देश

स्टेट सिक्युरिटी कमीशन (एसएससी) का गठन करना

डीजीपी की नियुक्ति मेरिट के आधार पर करना

अधिकारियों को कम से कम 2 साल का कार्यकाल होना चाहिए।

इन्वेस्टिगेशन और लॉ एंड ऑर्डर विंग को अलग करना

पुलिस इस्टाब्लिशमेंट बोर्ड (पीईबी) का गठन हो

पुलिस कंप्लेंट्स अथॉरिटी (पीसीए) का गठन किया जाए

अधिनियम तो बने लेकिन सिर्फ बचने के लिए

सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुपालन में अधिनियम बने मगर फैसले से बचने के लिए ऐसे अधिनियम बनाए जो वर्तमान व्यवस्था को ही कानूनी जामा पहनाने के समान है। यह स्थिति तब थी जब सुप्रीम कोर्ट अपने निर्देशों के अनुपालन की निगरानी खुद कर रहा है।

कहने को कई राज्यों ने अपने नए पुलिस अधिनियम बना लिए हैं, क्योंकि ये अधिनियम सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का पालन करने के लिए नहीं, बल्कि उनसे बचने के लिए बनाए गए हैं।

नेशनल सिक्युरिटी कमीशन (एनएससी) का गठन भी किया जाना था। कोर्ट ने इसके साथ यह भी कहा था कि जो निर्देश जारी किए जा रहे हैं, वे तब तक प्रभावी रहेंगे जब तक कि केंद्र और राज्य सरकारें इस मामले में अपना अधिनियम नहीं बना लेतीं।

2008 में सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस थॉमस समिति का गठन कर उसके फैसले के अनुपालन पर अपनी आख्या देने के लिए कहा। इस समिति ने 2010 में अपनी रिपोर्ट में दी, जिसमें हैरानी जाहिर करते हुए कहा कि सभी राज्य पुलिस सुधार के प्रति उदासीन हैं।
-कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनीशिएटिव (सीएचआरआई) के रिपोर्ट में बताया गया है कि सरकारी आदेश/अधिसूचनाएं कई राज्य जारी की हैं लेकिन किसी भी एक राज्य ने अदालत के निर्देशों का पूरे तरीके से पालन नहीं किया है। सीएचआरआई का अध्ययन प्रकाश सिंह बनाम भारत सरकार मामले में 2006 को पुलिस सुधारों को लेकर सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी किए गए निर्देशों को लेकर था।