इंडो आर्यन और झारखंड में बोली जाने वाली आदिवासी भाषाओं के बीच एक भाषाई संपर्क पर डीएसपीएमयू में व्याख्यान सह पुस्तक लोकार्पण

डॉ बीरेन्द्र कुमार महतो
राँची : जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा, डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय, रांची में आज “इंडो-आर्यन (सादरी-नागपुरी, खोरठा, कुरमाली और पंचपरगनिया) और झारखंड में बोली जाने वाली आदिवासी भाषाओं के बीच एक भाषाई संपर्क” विषय पर व्याख्यान माला का आयोजन किया गया। साथ ही प्राध्यापक डॉ बिनोद कुमार द्वारा लिखित पुस्तक “खोरठा लोकगीतों का सांस्कृतिक अध्ययन” एवं चन्द्रेश्वर द्वारा संपादित पुस्तक “संसदीय राजनीतिक कोश, झारखंड” का लोकार्पण किया गया।
कृति चर्चा करते हुए डॉ विनोद कुमार द्वारा लिखित पुस्तक खोरठा लोकगीतों का सांस्कृतिक अध्ययन पर कृति सांस्कृतिक अध्ययन पर कृति चर्चा करते हुए प्राध्यापक डॉ जिंदल सिंह मुंडा ने कहा कि शोध पुस्तकों की अपनी सीमाएं होती हैं। यह पुस्तक अपने आप में एक बहुमूल्य धरोहर के रूप में है, हालांकि शोध कार्य अलग तरह का कठिन कार्य है। एक विराट महासमुंद्र है। उन्होंने कहा कि झारखंड में विभिन्नताएं हैं और यही विभिनता पूरे देश में हमें अलग करती है। भाषा संस्कृति हमें जोड़ने और तोड़ने का भी काम करती है, परंतु हमारी भाषा संस्कृति पूरे देश और दुनिया के लोगों को जोड़ने का काम करती है। उन्होंने कहा कि निज भाषा की अपनी विशाल परंपरा है। यह शोध पुस्तक हमें एक दूसरे से जोड़ने का काम करेगी, न सिर्फ क्षेत्रीय आधार पर बल्कि देश-दुनिया के स्तर पर भी। उन्होंने कहा कि इस पुस्तक में चीजों को आलोचनात्मक ढंग से संग्रहित किया गया है। इसे हम अलग अलग सामाजिक दृष्टिकोण से देख सकते हैं। इस शोध पुस्तक में वर्णित गीतों की संपूर्ण परंपरा को हम देख सकते हैं। उन्होंने कहा कि समानता और समन्वय झारखंड की सबसे बड़ी संपत्ति है और यही इन सब बातों को यहाँ की स्थिति परिस्थिति को इस पुस्तक में संग्रहित गीतों के अध्ययन के माध्यम से समाज के सामने रखने का काम किया गया है। लोक भाषा जन भाषा की दृष्टिकोण से हम इसे महत्वपूर्ण मान सकते हैं साथ ही हम अपने जीवन को इसमें तलाश सकते हैं।
चंद्रेश्वर द्वारा संपादित पुस्तक “संसदीय राजनीतिक कोश, झारखंड” पर कृति चर्चा करते हुए जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग, रांची विश्वविद्यालय, रांची के पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ गिरधारी राम गौंझू ने कहा कि इतिहास वर्तमान का आईना होता है। अतीत को जानने माध्यम इतिहास होता है। इस पुस्तक के माध्यम से हम झारखंड के राजनीतिक गलियारों की कई अनछुए पहलुओं को जान सकते हैं। इतिहास हमेशा मूल्यांकन करती है। अतीत में जो गलतियां हुई हैं, उसमें सुधार करने का एक अवसर प्रदान करती है। इसके माध्यम से हम चीजों का मूल्यांकन कर उसमें सुधार करते हैं।
डीएसपीएमयू के कुलपति डॉ सत्यनारायण मुंडा ने कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए कहा कि साहित्यिक रचना हमारे विश्वविद्यालय के टीआरएल विभाग के लिए एक उपलब्धि है। साहित्य कर्म के माध्यम से हम अपनी बौद्धिक संपदा को बचाकर रख सकते हैं। इसके लिए हमें अधिक से अधिक साहित्य की रचना करने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि ऐसी रचनाओं के आने से हमारे समाज में, हमारे शोधार्थियों में क्रिएटिव ढंग से आगे बढ़ने का आईडिया मिलेगा। विचारों का आदान-प्रदान हो ऐसी रचनाओं को रचने की हमें नितांत आवश्यकता है।
लोकार्पण समारोह में आए अतिथियों का स्वागत डीएसपीएमयू के जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा के समन्वयक डॉ विनोद कुमार ने, जबकि संचालन
जय मंगल एवं धन्यवाद ज्ञापन हिंदी के विभागाध्यक्ष डॉ अनिल कुमार ठाकुर ने किया।
लोकार्पण समारोह के पश्चात कील विश्वविद्यालय, जर्मनी से आए भाषा वैज्ञानिक डॉ नेत्रा पी पौडयाल ने “इंडो आर्यन और झारखंड में बोली जाने वाली आदिवासी भाषाओं के बीच एक भाषाई संपर्क” विषय पर व्याख्यान दिया। उन्होंने झारखंडी भाषाओं, खासकर नागपुरी और खोरठा भाषा के विभिन्न व्याकरणिक पहलूओं पर सूक्ष्मता पूर्वक अपना विचार प्रकट करते हुए कहा कि झारखंड की आर्य समुदाय के भाषाओं में काफी समानता है। उन्होंने शोधार्थियों को शोध की विभिन्न विधाओं से अवगत कराया। उस साथ ही गांव-गांव में जाकर उस भाषा से संबंधित व्यक्तियों से बात कर शब्दों को समझने का प्रयास करने की बात कही। उन्होंने कहा कि भाषा में समानता है, तो कितना प्रतिशत समानता है? इस बात को जानने व समझने की जरूरत होगी। उन्होंने कहा कि झारखंड की आर्य भाषा परिवार में क्या-क्या समानता है, और क्यों है? इसी बात को शोध के माध्यम से सामने लाने की आवश्यकता है। संबंधित भाषाओं के 100 शब्दों को लेकर गांव में जाकर उस भाषा को बोलने वाले लोगों से, उन शब्दों का अर्थ जानने का प्रयास करना चाहिए। तत्पश्चात उन शब्दों की जांच कंप्यूटर प्रोग्राम आईपीएस सॉफ्टवेयर के माध्यम से करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि झारखंड की आर्य भाषाओं का रिश्ता बहन का रिश्ता हो सकता है, लेकिन मां और बेटे जैसा रिश्ता नहीं। जैसा कि ग्रियर्सन महोदय ने अपने शोध में कहा है कि यहाँ की आर्य भाषाएँ भोजपुरी और मगही की उपबोली है। परन्तु ये सच्चाई नहीं है। उन्होंने कहा कि सौ सालों से जो भाषा निरंतर चलती आ रही है उसे अचानक बदला नहीं जा सकता। इसलिए एक नहीं बल्कि कई दूसरे सॉफ्टवेयर उसे भी उन शब्दों को चेक करना चाहिए। उन्होंने कहा कि समय के साथ बदलाव आया है और इस बदलाव के परिणाम स्वरूप यहां की भाषाओं का स्वरूप में कई विभिन्नताएँ मिली है। उन्होंने कहा कि झारखंड की चारों आर्य भाषाओं का यहां की अलग-अलग जनजातियों के साथ संपर्क रहा है, यह संपर्क थोड़े दिनों का नहीं बल्कि कई वर्षों का रहा है और इन्हीं लंबे संपर्क के कारण जनजातीय और आर्य भाषाओं के शब्दों का आदान-प्रदान हुआ है। उन्होंने कहा कि झारखंड की भाषाओं को जानने और समझने के लिए संबंधित भाषा के विशेषज्ञों और उस भाषा को बोलने वाले व्यक्ति से सीधा संपर्क कर उसके उच्चारण को समझने और जानने का प्रयास किया जा रहा है। फील्ड में जाकर शोध शोध करना और बंद कमरे में बैठकर लिखना दोनों में बहुत ही अंतर है। उन्होंने कहा कि झारखंड के सबसे बड़े क्षेत्र में सादनी-नागपुरी भाषा और दूसरी भाषा के रूप में खोरठा भाषा बोली जाती है। उन्होंने कहा कि खोरठा भाषा पर संताली भाषा के शब्दों का काफी प्रभाव देखने को मिलता है। डॉ पौडयाल ने नागपुरी और खोरठा भाषा के व्याकरणिक पहलुओं यथा – सकर्मक क्रिया, अकर्मक क्रिया, संज्ञा, सर्वनाम, कारक और वचन की चर्चा विस्तार पूर्वक किया और उदाहरण के साथ समझाया। का प्रयास किया। उन्होंने कहा कि भाषाओं को समझने के लिए हमें लोकल लेवल में जाकर, वहाँ के लोग क्या समझते हैं, उस पर शोध होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि वे भाषाओं के ऐतिहासिक पहलूओं पर नहीं जाते, बल्कि उनका फोकस वर्तमान पर होता है।
इस मौके पर डीएसपीएमयू के पूर्व कुलपति डॉ यूसी मेहता, कुलसचिव डॉ एनडी गोस्वामी, साइंस के डीन डॉ भोला महतो, डीएसडब्लयू डॉ नमिता सिंह, नागपुरी के सहायक प्राध्यापक डॉ बीरेन्द्र कुमार महतो, प्राध्यापक रामदास उराँव, दुमनी माय मुर्मू, डॉ जुरन सिंह माणकी, शकुंतला मिश्रा, संदीप कुमार महतो, अनाम ओहदार, विक्की कुमार, योगेश कुमार महतो के अलावा कई अन्य सहायक प्राध्यापकगण, शोधार्थीगण एवं छात्र-छात्राएं मौजूद थे।