झारखंडी ने जीता कोरोना जंग,रामगढ़ के अभिषेक ने स्विटजरलैंड में दी कोराना को मात..

12 दिनों तक लड़ते रहे मौत से जंग, फ्रांस यात्रा के दौरान हुए थे संक्रमित

पत्नी और बेटे की रिपोर्ट आई निगेटिव, पीएमओ और भारतीय दूतावास ने की काफी मदद

सुधीर शर्मा, राँची

राँचीः मौत के मुँह में जाकर लौटने की अनुभूति को शब्दों में नहीं बताया जा सकता, मैंने 12 दिनों तक मौत को काफी करीब से महसूस किया है। आप अचेत अवस्था में बस असहाय पड़े होते है, आपको ये पता नहीं होता कि थोड़े देर बाद मैं रहूँगा या नहीं, लेकिन आज उन खुश्किस्मतों में हूँ, जो इस महामारी की जद में आकर बच निकलने में सफल हुए है।

ये कहानी है, रामगढ़ के अभिषेक कुमार मिश्रा की जो वर्तमान में स्विटजरलैंड के बर्न्स शहर के फ्रीबर्ग यूनिवर्सिटी में रिसर्च साइंटिस्ट के रूप में काम कर रहें है। मार्च के पहले सप्ताह में वो गेस्ट फैक्लटी के रूप में मरीन बायोलॉजी की क्लास लेने फ्रांस गए हुए थे, फिर वहाँ से मोन्टेकार्लो होते हुए स्विटजलैंड लौट आए। लौटने के बाद उन्हें सामान्य बुखार और सर्दी महसूस हुई। उन्हें लगा शायद  सफर के दौरान थकावट की वजह से ऐसा हो रहा है। 29 मार्च को अभिषेक को सांस लेने में परेशानी होने लगी। तब अभिषेक ने डॉक्टर से संपर्क किया। वहाँ के कैंटोमेन हॉस्पिटल में उन्हे स्क्रीनिंग के बाद ही बता दिया गया कि आपको कोविड 19 का संक्रमण है और तुरत अस्पताल में भर्ती करना पड़ेगा और बेहोश किया जाएगा।

उन्हें बस एक कॉल करने की अनुमति मिली, उनकी पत्नी निवेदिता ( स्विटजलैंड में ही रिसर्च राईटर) और एक 5 साल का बेटा साथ में ही रहते है। वो बस घर में एक कॉल ही कर पाए और उन्हें तुरत बेहोश करके इलाज शुरू किया गया। हालांकि उनकी पहली पहली रिपोर्ट निगेटिव आई, लेकिन ए टाईप लक्षण होने के कारण उनका कोरोना का इलाज किया जाने लगा। अभिषेक की दूसरी रिपोर्ट पॉजिटिव आई। वो 6 दिनों तक पूरी तरह से बेहोश रहे। उनके फेफड़े पूरी तरह से छतिग्रस्त हो चुकी थी।

6 दिनों के बाद जब होश आया, तो वो बोल पा रहे थे और न ही हाथ पैर हिला पा रहे था। लेकिन उनकी स्थिति में तेजी से सुधार होने लगा। धीरे-धीरे ऑक्सीजन मास्क हटाने की प्रक्रिया शुरू की गई, फिर लिक्विड डाईट दिया जाने लगा। उनके फेफड़ो में तेजी से सुधार हुआ। पूरी तरह  से स्वस्थ होने के बाद अभिषेक को 8 अप्रैल को अस्पताल से छुट्टी मिली।

काफी कष्टदायक रही इलाज की विधि

अभिषेक ने बताया कि इलाज का दौर काफी कष्टदायक था। उनके मुँह से फेफड़े तक एक पाईप डाली गई थी। शरीर में ऑक्सीजन की सप्लाई कृत्रिम तरीके से दिया जाता रहा। 8 दिनों तक केवल स्लाईन और हाई डोज के एंटीबायोटिक ही दिए जाते रहे। जब उन्हें होश आया तो डॉक्टरों ने उन्हें जोर-जोर से खांसने की सलाह दी, ताकि फेफड़ों में जमा म्यूकस बाहर आ सके। पूरा शरीर कमजोर हो जाने के कारण वो खांस भी नहीं पाते थे। लेकिन शरीर के इम्यून सिस्टम मजबूत होने के कारण उनके स्वास्थ्य में तेजी से सुधार हुआ। इसी बीच रोज फीज़ियोथेरपिस्ट उन्हे एक्सरसाइज कराते रहे। उन्होंने बताया कि 8 दिनों के बाद उन्हें दिए जा रहे कृत्रिम ऑक्सीजन की मात्रा घटाई गई, फिर लिक्विड डाईट दिया जाने लगा। इलाज के दौरान उनका वजन 17 किलो घट गया।

अभिषेक बताते हैं, कि वहाँ सभी मरीजों के लिए एक तकनीक नहीं अपनाई जाती। हरेक मरीज की शारीरिक स्थिति के अनुसार ही उनका इलाज किया जाता है।

हेल्थ इंश्यूरेंस के जरिए हुआ इलाज, फिर भी देने पड़े 1 लाख रूपए

हालांकि स्विटजरलैंड में काम करनेवाले सभी लोगों को हेल्थ इंश्यूरेंस लेना अनिवार्य होता है। अभिषेक ने बताया कि उनके वेतन से ही प्रीमियम दिया जाता है। उनके कवरेज की तय सीमा से अधिक का इलाज होने के कारण उन्हें 1250 स्विस फ्रैंक यानि करीब 98 हजार रूपए चुकाने पड़े।

पत्नी और बेटे की रिपोर्ट आई निगेटिव, पीएमओ और भारतीय दूतावास ने की मदद

अभिषेक की पत्नी और बेटे घर में अकेले ही थे, जब उन्हें पता चला तो उन्हें अस्पताल में मिलने भी नहीं दिया गया। अभिषेक बताते है, कि बर्नस राँची के एक मुहल्ले जितना छोटा शहर है, न कोई रिश्तेदार। ऐसी परिस्थिति में वो काफी टूट चुकी थी। निवेदिता अभी 3 महीने की गर्भवती है। उन्होने अभिषेक के घरवालों को भी नहीं बताया, केवल उनके बड़े भाई को इसकी जानकारी थी। फिर उन्होंने खुद को संभालते हुए हिम्मत जुटाई और पीएमओ और वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को ट्वीट कर मदद माँगी। उन्हें खुद एवं बेटे के भी संक्रमण का डर था। पीएमओ ने तत्परता दिखाते हुए स्विटजरलैंड के भारतीय दूतावास को मदद करने का निर्देश दिया। दूतावास ने उनके घर में ही कोविड टेस्ट किट के माध्यम से निवेदिता और उनके बेटे का टेस्ट किया। दोनों की रिपोर्ट निगेटिव आने पर ही उन्होंने चैन की सांस ली।

राँची से ग्रेजुएट है अभिषेक, अमेरिका के वर्जीनिया विश्वविद्यालय में भी पढ़ा चुके है

अभिषेक मूलतः रामगढ़ के दिग्वार के रहनेवाले हैं। उन्होंने 2004 में राँची के गोस्सनर कॉलेज से बीएससी जूलॉजी से ग्रेजुएशन किया है। इसके बाद वो मैसूर से बायोटेक्नोलॉजी कर अपनी पीएचडी स्विटजरलैंड से की। कुछ दिनों तक वहाँ प्लाजमोडियम पर रिसर्च करने के बाद वो 2017 में अमेरिका के वर्जीनिया विश्वविद्यालय में लेक्चरर के तौर पर पढ़ाया। फिलहाल पिछले एक साल से वो बर्नस में रह रहे है। लेकिन इस त्रासदी के बाद अब वो हमेशा के लिए स्वदेश लौटना चाहते है। उनकी पत्नी निवेदिता भी साईंटिस्ट है और फिलहाल वहीं एक स्र्टाटअप कंपनी स्काईलाइट में साइंटिफीक राइटर के तौर पर काम कर रही हैं ।